आलोचना >> भारतीय काव्य शास्त्र की भूमिका भारतीय काव्य शास्त्र की भूमिकायोगेन्द्र प्रताप सिंह
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भारतीय काव्य चिन्तन की दृष्टि कविता के स्थापत्य से जुड़ी है। काव्यसृजन शब्दार्थ का एक अद्वैत सहयोग है और कवि अपनी प्रतिभा के संयोग से इस शब्दार्थ में चित्त को विगलित करने की सामर्थ्य उत्पन्न करता है
भारतीय काव्य चिन्तन की दृष्टि कविता के स्थापत्य से जुड़ी है। काव्यसृजन शब्दार्थ का एक अद्वैत सहयोग है और कवि अपनी प्रतिभा के संयोग से इस शब्दार्थ में चित्त को विगलित करने की सामर्थ्य उत्पन्न करता है। पश्चिम में, यदि प्लेटो तथा अरस्तु से इसका प्रारम्भ माने तो सत्रहवीं शती तक वहाँ .इसका अव्यवस्थित एवं अक्रमबद्ध विवेचन मिलता है जबकि आचार्य भरत से प्रारम्भ होकर भारतीय काव्य चिन्तन सत्रहवीं शती तक अपने विकास के चरम शीर्ष पर पहुँच जाता है। 'शब्दार्थ' रचना की प्रमुख समस्याएँ - सर्जन का मूलाधार (काव्य हेतु), सृजन की केन्द्रीय चेतना (काव्यात्मा), सृजन का मूल उद्देश्य (काव्य प्रयोजन), कवि कर्म का वैशिष्ट्य जैसे महत्वपूर्ण पक्षों पर यहाँ क्रमश: चिन्तन किया गया है और सार्वभौम हल निकालने की चेष्टा की गई है। भारतीय काव्य चिन्तन की केन्द्रीय धुरी 'शब्दार्थ' रचना ही है क्योंकि कविता की निष्पत्ति के लिए एकमात्र और अन्तिम मूल सामग्री वही है-भारतीय काव्य चिन्तन का समग्र विकास अर्थात् शब्द सौष्ठव से लेकर आस्वादन तक का विवेचन, इसी शब्दार्थ पर ही आधारित रहा है और प्रस्तुत कृति का सम्बन्ध भारतीय कविता चिन्तन के इसी वैशिष्ट्य को इंगित करना है।
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